भारतीय राजनीति में नैतिकता का पतन तो १९७० में ही आरम्भ हो गया था फिर भी कुछ नेताओं ने नैतिकता का दामन नहीं छोड़ा, चाहे अटल बिहारी वाजपई का इंदिरा गाँधी को दुर्गा का संबोधन हो, या विमान दुर्घटना होने पर माधव राव सिंधिया का त्यागपत्र.लालकृष्ण अडवाणी ने जैन हवाला मामले में नाम आने पर त्यागपत्र किया और मामले में बरी होने तक संसद से दूर ही रहे. ४०४ लोकसभा सीट होने पर भी राजीव गाँधी ने जहाँ विपक्ष का हमेशा सम्मान किया, वहीँ सोनिया गाँधी ने विपक्ष की भावनाओं का सम्मान कर प्रधानमन्त्री पद पर आसीन होने से इनकार कर दिया. ऐसी कई घटनाएँ राजनीति में नैतिकता की मिसाल बन गयीं.
परन्तु हाल के दिनों में घटी अनेक घटनाओं ने राजनीती में नैतिकता पर प्रश्नचिंह ही नहीं लगाया बल्कि जनतंत्र को शर्मसार कर दिया.
केंद्र में बैठे कैबिनेट मंत्रियों से ले कर मुख्य मंत्रियों घोटाले के गंभीर आरोप लगे, देश की गृहमंत्री सुषमा स्वराज एवं राजस्थान की मुख्य मंत्री पर न केवल घोटालेबाजों को बचाने के आरोप लगे बल्कि सुषमा स्वराज पर conflict of interest का आरोप है, यह सर्वविदित सत्य है की सुषमा स्वराज के पति एवं सुपुत्री घोटालेबाज भगोड़े ललित मोदी के लिए कार्य करते हैं, इसी प्रकार मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान पर व्यावसायिक परीक्षा मंडल अर्थात व्यापम, सिंहस्थ जैसे धार्मिक कार्यक्रम में घोटाले बाजी के आरोप लगे, यही नहीं केंद्र एवं राज्य के कई नेताओं पर घोतालेबाजी के आरोप लगे, एवं उन्हें दबाने के लिए ५० से अधिक लोगों की जाने गयी, देश में सभी जांच एजेंसी दन्त विहीन कर दी गयी, परन्तु न तो किसी मामले की जांच की गयी, और न ही किसी का त्यागपत्र. पूर्ववर्ती सरकार से दिन में ३ बार त्यागपत्र मांगने वाले सत्ताधारी दल के नेता मौन धारण कर बैठ गए. येन केन प्रकारेण मीडिया को चुप कराया गया. और सत्ताधारी दल के प्रवक्ता, नेता, और मंत्री इन घोटालों के जवाब में पूर्ववर्ती सरकार पर लगे आरोपों की दुहाई देते रहे, हालाँकि सत्ता में आने के लगभग ३ वर्ष पश्चात् भी न तो इन आरोपों में कोई मामला दर्ज हुआ, न कोई गिरफ़्तारी.
बात केवल घोटालों तक ही सीमित नहीं है, विगत २ वर्षों में जनतंत्र के साथ बार बार बलात्कार होता रहा, यहाँ तक की उच्चतम न्यायलय में भी यह साबित हो चूका है. गत वर्ष उत्तरांचल एवं अरुणाचल में केंद्र सरकार ने हर तरह की तिकड़म कर नैतिकता को ताक पर रख, जनतंत्र की हत्या कर बहुमत से चुनी हुई सरकारों को राज्यपाल के माध्यम से गिराया, मगर माननीय उच्चतम न्यायालय ने जनतंत्र की रक्षा करते हुए, उन सरकारों को बहाल किया, मगर फिर जनतंत्र पर कलंक लगते हुए अरुणाचल की सरकार गिरा दी गयी. अभी कुछ दिन पूर्व हुए चुनावों में राज्यपाल ने फिर जनतंत्र पर दाग लगाया, दो प्रदेशों में जिस पार्टी पर जनता ने सबसे अधिक विश्वास जताया उसे नकारते हुए, दुसरे नंबर की पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया. जिस प्रकार से विधायकों का समर्थन हासिल किया गया, उससे खरीदफरोक्त स्पष्ट हैं. मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है.
कब तक? आखिर कब तक? जनता मैं रहेगी, और ये नेता देश की मूल भावना, देश के जनतंत्र के साथ बार बार खिलवाड़ करते रहेंगे? आखिर जनता की सेवा के लिए, जनता के लिए चुने गए नेता कैसे जनतंत्र पर हमला करने की हिम्मत करते हैं?