भारत में व्हिप का प्रयोग राजनितिक दल अपने दल के जनप्रतिनिधियों को अनुशासन में रखने के लिए करते हैं. राजनैतिक दल तीन प्रकार की व्हिप जारी कर सकते है
पहली तरह की व्हिप एक लाइन की व्हिप होती है जो सदस्यों पर बाध्य नहीं होती, दूसरी तरह की व्हिप दो लाइन की व्हिप, जिससे सदस्यों को संसद (या विधानसभा) में वोटिंग के लिए मौजूद होना अनिवार्य होता है, और तीसरी तरह की व्हिप जो तीन लाइन की व्हिप होती है, उसमे सदस्यों को मतदान के दौरान संसद या विधानसभा में न केवल उपस्थित होना बल्कि अनिवार्य रूप से पार्टी लाइन पर मतदान करना होगा एवं इसके उल्लंघन पर दलबदल कानून के तहत कार्यवाही हो सकती है.
जनतंत्र में सरकार जनता की, जनता के लिए, एवं जनता के द्वारा होती है:. अमेरिकन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन
परन्तु क्या व्हिप व्यवस्था जनतंत्र की भावना का उल्लंघन नहीं है? यह नियम जो की न तो भारतीय संविधान में वर्णित है और न ही संसद की नियमावली में केवल राजनितिक दलों ने अपने स्वार्थ के लिए बनाया हैं
व्हिप का एक अर्थ कोड़ा भी होता है, और यह नियम वस्तुतः जनतंत्र के लिए एक कोड़ा ही है.
जनप्रतिनिधि राजनितिक दल के नहीं बल्कि जनता के प्रतिनिधि होते है, उन्हें संसद में जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए जनता द्वारा भेजा जाता है, परन्तु व्हिप व्यवस्था मूलतः राजनितिक दलों के हितों की रक्षा के लिए प्रतीत होती है. ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा स्थापित इस व्यवस्था को राजनितिक दलों ने अपने फायदे के लिए बरक़रार रखा. ज्यादा उचित ये होता की जनप्रतिनिधियों को किसी भी क़ानून पर स्वविवेक से मत रखने का पूर्ण अधिकार होता. आखिर क्यों जनप्रतिनिधियों को जनता के हित की बजाय राजनितिक दलों की महत्वकांक्षा एवं लाभ के लिए कार्य करना चाहिए? जनप्रतिनिधि स्वयं के विवेकानुसार निर्णय लें और अगर निर्णय गलत हो तो उसका जवाब मतदाता देंगे, आखिर पार्टी नेत्रित्व का निर्णय जनप्रतिनिधि पर क्यों थोपा जाए?
भारत में राजनीती का स्तर देख कर यह तर्क अवश्य दिया जा सकता है की इससे जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोक्त बढ़ेगी, परन्तु ये खरीद फरोक्त रोकने के दंड का प्रावधान है, उसे सख्ती से क्रियान्वित करने की आवश्यकता अधिक है इस ब्रिटिश कालीन व्यवस्था से जो कि जनतंत्र एवं स्वतंत्र विचार दोनों पर अघात है.
Nice blog
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